...और जिंदा हो उठी कार्यकर्ता की आत्मा
...और जिंदा हो उठी कार्यकर्ता की आत्मा
"गरीबों की आवाज बुलंद करनेवाले.....
गरीबों के दिलों में बसने वाले लोकप्रिय उम्मीदवार अपने साहेब जी को पूर्ण बहुमत से विजयी करें..."
हर घर में इक मंदिर है
हर मूरत में साहब हैं...।
जीतेंगे भई जीतेंगे...
साहब जी अपने जीतेंगे...।
जीतेंगे भई जीतेंगे...
साहब ही तो जीतेंगे...
जी हां, चुनाव आते ही, गली गली, मुहल्ले मुहल्ले तक में नारों की झड़ी लग जाती है। गांव से लेकर शहर तक में चुनावी रंग एक जैसे ही तो होते हैं। कार्यकर्ताओं का जोश समर्थकों की भीड़। सब एक ही जैसी तो होती है। चुनावी घोषणा के लिए नारे लगाने वाली उस भीड़ में भी एक ऐसा इंसान होता है, जिस पर सभी कार्यकर्ता भरोसा करते हैं। उसी पर भरोसा कर के तो इतनी भीड़ जुटती रही है हर चुनाव में, हर जुलूस में। चुनाव आते ही दिन भर पैरों में मानों चरखी फिट कर दी जाती है। एक दिन में ही पाच- छह गांवों की सभाओं को निपटाने की ताकत तभी तो आती है। मतदान का दिन जैसे जैसे नजदीक आता है, कार्यकर्ताओं का जोश भी उतना ही बढ़ता चला जाता है। गांव गांव में बूथ का इंतजाम करना, मतदाता सूचियों को अपडेट करने, पोलिंग एजेंट के साथ बैठना, मतदाता स्लीप बांटना, सब काम पर भी तो नजर रखनी पड़ती है। जब से होश संभाला है, तब से ही तो यह सब काम अपने साहब के लिए कर रहा है समीर। उसका बाप भी तो यही काम करता था। अब वह कर रहा है अपने साहेब के लिए। तभी तो साहेब का समीर पर कितना दृढ़ विश्वास है। भरोसे का कार्यकर्ता मानते हैं साहब उसे....।
चुनाव खत्म हो गया। साहब जीतकर आए। पार्टी में बड़ा ओहदा भी मिला और उसी के साथ समीर की साख भी तो बढ़ी। लेकिन केवल साख ही बढ़ी। पार्टी के लिए अपना तन मन अर्पित कर देने वाला समीर कभी चिंतित नहीं हुआ। कभी कोई रोजगार शुरू करने की सोची नहीं। उसके साथ पढ़नेवाले दोस्त शहर चले गए। कोई नौकरी करने लगा, किसी ने बिजनेस शुरू कर दिया था। लेकिन समीर को लगता था, जब तक उसके साहेब का आशीर्वाद उसके साथ है... उसके साहब जब तक हैं, तब तक उसे कोई कमी नहीं आने पाएगी...।
इस वाले चुनाव में भी तो साहब भारी मतों से जीत कर आए हैं। जीतने की खुशी में इस बार अबीर गुलाल भी आसमान में ज्यादा उड़ रहे थे। साहब अपनी गाडी से नीचे उतरे। जोश में भरे कार्यकर्ताओं ने साहब के स्वागत में पटाखों की लड़ी ही छोड़ दी। जयघोष के बीच पटाखे की आवाज काफी देर तक गूंजती रही। साहब ने मंच से सभी कार्यकर्ताओं का आभार व्यक्त किया। साथ ही यह भी वचन ले लिया कि हमेशा साथ रहेंगे उनके कार्यकर्ता। उन्होंने अच्छा काम करने और सेवा करने का अवसर देने की भावनात्मक अपील की और अपना भाषण पूरा किया। साहब अब राजधानी जा रहे हैं, सुना है बुलावा आया है वहां से...।
राजधानी के कामकाज से निबटने के बाद पहले साहब महीने दो महीने में तहसील और गांव के चक्कर लगा देते थे। लेकिन अब थोड़ा कम आना होता है। जब भी साहब शहर से गांव आते, समीर को ही तो साहब की आवभगत की जिम्मेदारी निभानी पड़ती। आठ-दस दिन...। जब तक साहब रहते, उनके साथ ही समीर परछाईं की तरह रहता। दौरे.. मीटिंग.. कार्यक्रम..जहां जहां साहब जाते, समीर को लिए बिना नहीं जाते। दौरा समाप्त होते ही साहब फिर से राजधानी लौट जाते...।
अब साहब मंत्री हो गए हैं। जल्द ही ग्राम पंचायत का इलेकशन होने वाला है। समीर को प्रधान बनाने की मांग उठ रही है। साहब ने भी टिकट फिक्स करने और चुनाव लड़ने की सहमति समीर को दी है। लेकिन, इस बार ग्राम पंचायत महिला प्रत्याशी के लिए आरक्षित घोषित हो गया। समीर और उसके समर्थक कार्यकर्ता निराश हो उठे...।
साहब आए। उन्होंने सभी को समझाया। कार्यकर्ताओं से कहा- फिर मिलेगा मौका। अवसर चूक जाने से ही उम्र घट नहीं जाती। अगली बार के लिए तैयारी करो। हिम्मत से काम लो। अगली बार फिर से विचार करेंगे। पार्टी उम्मीदवार के लिए प्रचार करने की नसीहत देकर साहब राजधानी रवाना हो गए। समीर अपने कार्यकर्ताओं को लेकर प्रचार में जुट गया। ग्राम पंचायत में साहब के धड़े को भारी अंतरों से जीत मिली। महिला प्रधान हुई। साहब भी खुश हुए।
दिन गुजरते रहे। महीने फिर साल गुजरने लगे। मूंछे सफेद पड़ने लगी थी समीर की। चुनाव दर चुनाव आते रहे, समीर को आश्वासन मिलते रहे। इस बीच समीर का परिवार भी तो बढ़ रहा था। साथ ही कर्ज भी। बच्चे बड़े होने लगे थे। पत्नी की बीमारी में समीर को बाग व जमीन तक बेचनी पड़ी। साहब की बात पर बैंक से कर्ज मिल जा रहे थे, लेकिन चुकाने के कोई इंतजाम नहीं हो पा रहा था...ब्याज लगातार मूलधन के साथ बढ़ रहा था...कर्ज की फिर भी कमी नहीं रही, मिलता रहा..बढ़ता रहा..।
साहब के संग रहने से समीर का अपने गांव में, तहसील में सम्मान बढ़ने लगा था। शहर से उसके दोस्त आते, बड़ी बड़ी गाड़ियों से यदा कदा। कभी कभी कोई सरकारी विभाग में काम करनेवाला छोटा मोटा कर्मचारी भी आकर उससे मिलते, समस्या बताते और जाते जाते समीर से कह जाते- भाई, तुम्हारी तो बहुत पहुंच है। सीधे मंत्री जी तक। अपने साहब से कह कर कोई जुगाड़ तो लगवा दो, मेरे ट्रांसफर... मेरे प्रमोशन के लिए साहब से बात कर लो। साहब तुम्हारी बात भला कैसे टाल सकते हैं। दोस्तों की बातें सुनकर समीर की छाती और भी चौड़ी हो जाती....।
जल्द ही जिला परिषद के चुनाव होंगे। इस बार तो सामान्य वर्ग की सीट है। कोई भी चुनाव लड़ सकता है ! इस बार तो कोई समस्या ही नहीं। समीर को पक्का जिला परिषद का टिकट मिल कर रहेगा। अचानक एक दिन साहब ने ही खुद समीर को फोन किया और राजधानी बुला लिया। टिकट और कुछ रुपए भी भेजे। समीर को बहुत ही अच्छा लगा। समीर राजधानी के लिए रवाना हुआ। साहब के वातानुकूलित चेंबर में पहुंचा। साहब ने बैठने को कहा। समीर के बैठते ही साहब ने अर्दली से कहकर चाय और नाश्ता मंगवाया। नाश्ते के बीच ही साहब ने जिला परिषद चुनाव पर चर्चा की। साहब बोले-देखो समीर, इस बार चुनाव कांटे की टक्कर के होंगे। इस बार जिप चुनाव काफी टफ होंगे। विपक्षी पार्टियों के सामने मजबूत उम्मीदवार उतारा जाएगा। पार्टी ने तुम्हें ही टिकट देने का फैसला किया है। लेकिन, बात चुनावी खर्चे की है। विपक्षी पार्टियों की ओर से आर्थिक रूप से कई मजबूत उम्मीदवार उतारे गए हैं। इस चुनाव में 15 से 20 लाख रुपए खर्च होंगे। हमारी पार्टी भी 4-5 लाख का फंड दे देगी। कुछ रुपए मैं भी दूंगा। लेकिन यह चुनाव जीतना पार्टी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है, पार्टी की साख का सवाल बन गया है जिप चुनाव।
साहब ने समीर की तरफ देखा। समीर चुपचाप बैठा साहब को ही सुन रहा था। साहब ने आगे कहा। देखो समीर, जानता हूं कि फिलहाल तुम्हारी स्थिति चुनाव में लाखों रुपए खर्च करने की नहीं है। पहले से ही भारी कर्ज हैं। मेरी सलाह है कि इस बार तुम्हें चुनाव नहीं लड़ना चाहिए। फिर मौके मिलेंगे। मेरी भी इज्जत का सवाल है। पार्टी की प्रतिष्ठा के लिए इस बार समीर तुम पीछे हट जाओ। अगले जिला परिषद चुनाव में तुम्हें ही टिकट दिलवाऊंगा। यह मेरा पक्का वादा है।
समीर बिना कुछ बोले एसी केबिन से बाहर आया। सोचने लगा, साहेब ठीक ही तो कह रहे हैं। आज चुनावों में कितना खर्च किया जा रहा है। बिना पैसे के चुनाव लड़ा भी तो नहीं जा सकता। समीर की जगह पर सचिन जमादार को जिला परिषद का टिकट मिला। खूब रुपए खर्च किए। साहब खुद समीर के पास आए और वादा याद दिलाया। पार्टी की प्रतिष्ठा की याद दिलाई। समीर के अंदर का कार्यकर्ता फिर से जिंदा हो उठा। अपने समर्थकों के साथ फिर से सचिन के प्रचार के लिए जुट गया। समीर के पैर में फिर से चरखी बंध गए। जमादार 10 हजार मत से विजयी हुए.. पटाखे फोड़े गए...।
समीर के बच्चे बड़े हो गए हैं। बड़ा लड़का शहर में एक प्राइवेट कंपनी में काम पर लग गया है। छोटा बेटा कॉलेज में है। पिछले साल ही समीर के बूढ़े बाप ने दम तोड़ा है। साहब ने समीर के बेटे को सरकारी नौकरी में लेने का वचन दिया है। इधर, कर्ज देनेवाली बैंकों का कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है। इस साल जमीन से फसल पैदा ही नहीं हुई। खेत में जो कुछ भी उगता है, जंगली जानवरों का निवाला बन जाता है। खाद के दाम दोगुना हो गया है, बिजली नहीं रहती। मजदूर भी तो नहीं मिलते।मनरेगा में दिहाड़ी पाते हैं, गप्प लड़ाते हैं। शाम को लौट आते हैं। दलित ओबीसी के बच्चे सब मनरेगा में हैं। मजदूर खेतों पर काम करने से टालमटोल करने लगे हैं। मेहनत से समीर नहीं डरा..अब समीर से भी तो किसानी नहीं होती।
खाट पर लेटा समीर सोच रहा है। साहब ने वचन दिया है। उसके बच्चों को सरकारी नौकरी लगवा देंगे। एक बार सरकारी नौकरी मिलते ही, महीने में लाख-डेढ़ लाख रुपये की आमदनी आने लगेगी। बैंकों का कर्ज चुकता हो जाएगा। पत्नी के लिए तीन- चार गहने बनवा देंगे। घर की आर्थिक स्थिति बदलते ही कुछ जमीन खरीद लेंगे। अगले चुनाव में साहब ने टिकट देने का वादा किया है। समीर के चेहरे पर झुर्रियां पड़ने लगी हैं। सिर के आधे बाल झड़ चुके हैं। उम्र की निशानी दिखने लगी है। समीर सोच रहा है-इस बार साहब वरिष्ठ कार्यकर्ता होने के नाते उसे ही टिकट देंगे...।
पिछली बार साहब घर आए थे। कई सभाओं में उनका बेटा भी तो साथ था। कार्यक्रमों में खूब भाषण देने लगा है। गरीबों मजदूरों के हित के लिए काम करने की अच्छी अच्छी बातें भी करने लगा है। जनसभाओं में कहता है उसका खानदान गरीबों की सेवा करने के लिए ही तो राजनीति में आया है। किसी का भी काम हो, सीधे मंत्री जी से बात कीजिए। मुझसे बात कीजिए। हमेशा आपकी मदद के लिए उपलब्ध रहूंगा। आप बस मौका दीजिए। अगले साल जिला पंचायत के चुनाव हैं। टिकट पाने के लिए समीर भी प्रयास में है। पार्टी का वरिष्ठ कार्यकर्ता। पार्टी के लिए एकनिष्ठ रहनेवाले कार्यकर्ता के रूप में समीर ने भी हाथ पांव मारने शुरू कर दिए हैं।
एक दिन साहब ने समीर को बुलाया। बोले- समीर, अपने ही दांत है, और अपने ही ओंठ भी। दोनों को दर्द होगा। मेरा बेटा मान नहीं रहा है। कहता है राजनीति में उतरना है, गरीबों के लिए काम करने की जिद करने लगा है। लेकिन मेरे लिए पार्टी के एकनिष्ठ कार्यकर्ता ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। मेरे लिए बेटे की जगह पर समीर जैसे एकनिष्ठ कार्यकर्ता ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, दिल के नजदीक है, मेरे ज्यादा प्रिय है। मैं भला कैसे भूल जाऊं। हमारे लिए ही तो समीर तुमने अपना जीवन खपा दिया। लेकिन लड़का जिद्दी निकल गया है। मानता ही नहीं है। समीर मैं क्या करूँ। तुम जैसा कहोगे, करूँगा।
साहब का यह रूप देख समीर का मन भर आया। बेटे की जिद क्या होती है, भला वह न जानेगा। साहब की यह अवस्था देख द्रवित होते हुए समीर ने कहा- चिंता न करो साहब। भैया जी नहीं मानते, ठीक है। उन्हीं का अर्ज भर दो। घर की ही तो बात है। मुझे टिकट नहीं मिला तो क्या हुआ, भैया भी तो अपने ही हैं। घर में विवाद नहीं होना चाहिए। हमने पार्टी के लिए इतना कुछ किया, जिंदगी खपा दी। अब भैया जी के लिए खपेंगे...। बोलते हुए समीर का मन उदास था। भीतर की उमंग खो गई थी। अनमना सा होकर वह घर की ओर लौट चला...।
समीर का मन लग नहीं रहा था। करवट बदल रहा था। नींद गायब थी। छत की तरफ देखे जा रहा है, सोच रहा है। उसने अपनी पूरी जिंदगी इसी राजनीति के लिए गंवा दी है। घर में अपने बाप की तस्वीर की जगह साहब जी की फोटो लगाई। इनकी राजनीति चमकाने में खेती नष्ट हो गई, बाग बगीचे उजड़ गए। वैवाहिक जीवन की फिक्र तक नहीं की। बेटा चुनाव में जीतेगा, इसी आशा में बाप भी चल बसा। मां के सपने भी तो पूरा नहीं कर पाया। पत्नी बीमारी में चल बसी। बच्चे भी नौकरी और परिवार के लिए दूर चले गए। जो मित्र थे, वह भी तो साथ नहीं रहे। खुद का धंधा कारोबार शुरू कर, आज कहां से कहां पहुंच गए। और खुद वह? कुछ भी तो न कर पाया। केवल पार्टी और साहब के लिए एकनिष्ठता का पर्याय बना हुआ है। कल को बेटे जब उससे सवाल पूछेंगे, तो क्या जवाब देगा वह। क्या एक बाप होने का फर्ज निभा पाया वह। एक कार्यकर्ता ही तो रह गया है जीवन में। कार्यकर्ता की उपलब्धि क्या मायने रखती है अब। क्या जवाब दूंगा अपने बच्चों को...। पता नहीं कब समीर की आंख लग गई थी।
सुबह देर तक सोता रहा समीर। उसकी नींद भी तो खुली थी भैया जी की आवाज से। भैया जी, साहब जी के बेटे भैया जी। समीर खाट से उठ बैठा। बाहर आया। बाहर निकलते ही भैया जी उसके पैरों में जा पड़ा। भैया जी बोले- काका, आप जैसे एकनिष्ठ कार्यकर्ताओं के कारण ही तो यह राजघराने पैदा होते हैं। राजनीति चल निकलती है। मेरा चुनाव जीतना अब तुम्हारे ही हाथ में है। काका तुम्हारे बिना मैं चुनाव नहीं जीत पाऊंगा। भैया जी पैर पकड़े बैठे थे। समीर ने भैया जी को कंधा पकड़ कर उठाया। भैया जी बोले, वचन दो काका, चुनाव प्रचार की बागडोर संभालोगे। बोलो। समीर के भीतर का सुप्त कार्यकर्ता फिर से जीवंत होने लगा है। वह फिर से पार्टी के लिए कमर कसने को तैयार है। इस बार अपने साहब के लिए नहीं, भैयाजी के लिए कार्यकर्ता समीर जिंदा हो उठा था। समीर फिर से चुनाव प्रचार में जुट गया है। उसके पैरों में चरखी बांध दी गई है। गांव गांव, शहर शहर। कस्बे कस्बे। समीर जैसे कार्यकर्ता जूझ रहे हैं, झूम रहे हैं। राजघराने फलफूल रहे हैं। और कार्यकर्ता...।
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