आयातित देवी की आंखों पर तो पट्टी बंधी है
आयातित न्याय देवी की आंखों पर तो पट्टी बंधी है...
बचपन से ही पढ़ते और सुनते आ रहे हैं - न्याय में असमानता न हो इसलिए वे आँख पर पट्टी बाँधकर ही न्याय तौलती है। लेकिन तराजू का पलड़ा सम है यह कैसे पता चल सकेगा। आंखें तो बंद हैं न्याय तौलनेवाली पत्थर की देवी के। फिर केवल सुनकर ही निर्णय कैसे हो सकेगा। झूठ का पलड़ा भारी ही रहता है तो फिर सच कैसे मजबूत होगा। प्रयास को सफलता मिलेगी कैसे? यह देखने सुनने के बाद भी न्याय अन्याय का फैसला कैसे किया जा सकता है? क्या वैसे ही, जैसे सदियों से फैसला किया जाता रहा है। मनुवादी फैसलों के तहत...। न्यायपालिका, कार्य पालिका में भी तो वर्णवादी व्यवस्था की भरमार है, तो फिर आयातित देवी की आंखों पर तो पट्टी बंधी है, यहां के मूल निवासियों की भाषा को कैसे समझ सकेंगी विदेशी मूल की न्याय देवी।
कानून और कचहरी का जब भी जिक्र होता है ,न्याय की देवी की एक मूरत सामने होती है। साथ ही उभरती है – आँखों पर पट्टी बंधी, एक हाथ में तराजू और दूसरे हाथ में तलवारधारी देवी की मनमोहक छवि। लेकिन भारत में इस न्याय की देवी का नाम क्या है, यह कोई नहीं जानता। आँखों पर बंधी पट्टी का मतलब होता है सब को एक जैसा मानना, निष्पक्षता का पालन करना। तराजू का मतलब है किसी भी विषय या व्यक्ति के गुण दोष को तौलना और फिर निर्णय देना। देवी के हाथ में जो दोधारी तलवार है, क्या वह सही न्याय के लिए उठती है, क्या उठ सकी है और भविष्य में उठ सकेगी, इसकी क्या गॉरंटी है। तो यह दोधारी तलवार चलेगी तो चलेगी किस पर? आंखें तो बंद होती हैं, सच को कैसे देख सकेंगी आंखों पर पट्तीटी बांधनेवाली आयातित देवी। कान से सुनने मात्र से ही कैसे साबित हो जाएगा कि बोलने वाला झूठ बोल रहा है या फिर सच बोलनेवाला ही सच्चा है। बोलने वाले की नैतिकता का निर्धारण कौन और किस तरह किया जाता है भला?
जब आंखें बंद हैं तो जाहिर है, सुनकर ही न्याय होगा। बोलने वाला वाचाल होगा, तभी तो न्याय की देवी के कानों तक आवाज पहुंच सकेगी। सवाल यह भी तो है वाचालता किस तरह के लोगों में होती है। चालाक चतुर लोग ही तो वाचाल होते हैं। दबा कुचला, अशिक्षित और कमजोर तबका भला कैसे बोल सकता है, उसकी तो आवाज ही न निकल सकेगी। फिर आंखों पर पट्टी बांधे न्याय करनेवाली देवी कैसे महसूस कर सकेगी उसकी आवाज, उसकी बात, उसकी भाषा, उसकी पीड़ा? दबे कुचले लोगों की तो आवाज ही छीन ली गई हैं। कपोल कल्पना के उडानझल्लों और मिथकीय चरित्रों के मायाजाल में उलझाने के बाद सही मायनों में धर्म के नाम पर उसके सोचने समझने की शक्ति को ही तो नष्ट कर दिया गया है सदियों से। तो आंखों पर पट्टी बांधे न्याय की देवी कैसे देख सकेगी दबे कुचले लोगों की पीड़ा, सच का हाल कैसे अवगत हो सकेगा। कमजोर व अज्ञानियों में जब बोलने की कला ही न होगी तो न्याय की देवी के कानों तक आवाज कैसे पहुंच पाएगी भला।
अदालतों और कचहरी में जो यह न्याय की देवी स्थापित की गई है न, वह रोमन मिथक कथाओं की देवी है। इसी से मिलती जुलती न्याय की देवी ग्रीक कथाओं में भी है –थेमीस और मिस्र की कथाओं में देवी का नाम है इसिस ! सवाल है भारत के पौराणिक कथाओं में जो 33 करोड़ देवी देवताओं की भीड़ है, उसमें न्याय की देवी का नाम क्या है, उसका कोई मन्दिर क्यों नहीं है? उसके फॉलोवर्स क्यों नहीं हैं। न्याय के देवता कौन है? उनका भी मन्दिर कहाँ कहाँ पर बनाया गया है? भारत महान में धन की देवी है –लक्ष्मी । विद्या की देवी है-सरस्वती । शक्ति की देवी है – दुर्गा । लेकिन न्याय की देवी कौन है ? कोई नहीं बताएगा, स्वयं ब्रह्मा जी के मुख से पैदा होनेवाला और देवताओं को उंगलियों पर नचाने वाला तबका तो कतई नहीं बताएगा न्याय की देवी का पता।
तो महान देश मे सनातन धर्म का जिक्र आता है। वेदों, पुराणों उपनिषदों का जिक्र आता है। महाभारत के पात्र युधिष्ठिर और विदुर धर्म के केवल अवतार ही कहे जाते हैं, लेकिन उन्हें देवता नहीं कहा जाता। वैसे यमराज को भी नियमन करने वाले देवता के रूप में माना जाता है। लेकिन उनकी भूमिका तो मृत्यु के बाद शुरू होती है। शनि को भी न्याय का देवता कहा जाता है, लेकिन लोगों ने उन्हें क्रूर देवता की उपाधि देकर लोगों में उनकी छवि बिगाड़ कर रख दी है। लौकिक जीवन में इनमें से कोई भी न्याय का प्रतिनिधित्व तो नहीं करते। संभव है न्याय को धर्म में समाहित माना गया हो । फिर धर्म एक देव के रूप में प्रतिष्ठित क्यों नहीं है? ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि भारत में न्याय की अवधारणा ही नहीं थी। तो फिर सनातनी धर्म को मानने वाले न्याय की आयातित देवी का गुणगान क्यों करेंगे। आंखों पर पट्टी ही ठीक है। न्याय को धर्म की घुट्टी पिलाकर फैसला वर्णवाद सुनाता रहा है, आगे भी सुनाता ही रहेगा।
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